गंगोत्री, भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, अपनी अद्वितीय सुंदरता और शांति के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।
” नमामि गंगे तब पद पंकजम् , सुरासुरै: बैंदित दिव्य रूपम।
भक्तिं मुक्तिं च ददासि नित्यं, भावनुसारेण सदा नारायणम् ।। “
हे मां गंगे देवताओं और राक्षसों से वंदित आपके कमल रूपी चरणों में हमारा प्रणाम स्वीकार हो। आप मनुष्य को उनके नित्य ही उनके भाव के अनुसार भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाली हो। मां गंगा पवित्रता की पर्याय मुक्ति प्रदान करने वाली समस्त पापों को स्पर्श, दर्शन मात्र से हरने वाली विश्व प्रसिद्ध नदी का पावन नाम ही “गंगा” है।
हिमालय से निकलने वाली मात्र यही एक पवित्र नदी है, जो उद्गम से लेकर गंगासागर में मिलने तक अपना नाम (गंगा और गंगासागर तक )कहीं भी लुप्त नहीं होने देती है। स्वर्ग लोक से जहां गंगा उत्तरी वही पावन पवित्र स्थान आज “गंगोत्री” के नाम से प्रसिद्ध है। गंगोत्री धाम चार धामों में से एक है। गंगोत्री की ऊंचाई समुद्र तल से 3100 मीटर है। हरिद्वार से गंगोत्री मात्र 289 किलोमीटर दूर है। आज गंगोत्री का विस्तार तीन वर्ग किलोमीटर तक हो चुका है। किसी समय गंगोत्री सहित चार धाम की यात्रा बेहद कठिन (दुर्लभ) समझी जाती थी।
आज भी गंगोत्री धाम के आस-पास विशालकाय देवदार जैसे अनेकों हरे-भरे पेड़ों का घनघोर जंगल है। इस सुनसान जंगल में जंगली पशु हिरण, बाघ के साथ नाना प्रकार के कलरव करती पक्षियां देखी जा सकती हैं। आज भी यहां अकेले में भयावह सा लगता है। यदि हम कल्पना करें कि जब भगीरथ ने गंगोत्री में तपस्या की होगी। तो वह कैसे यहां हजारों वर्ष पूर्व रहे होंगे, वह भी बिना संसाधन के। लंका का पुल निर्माण 1985 में हुआ। जिसकी ऊंचाई 410 फीट और लंबाई 300 फीट है। माना जाता है कि यह पुल एशिया का सबसे ऊंचा पुल है, यदि सबसे ऊंचा पुल न भी हुआ तो सबसे ऊंचे पुलों में तो जरूर होगा।
चंबा से उत्तर की काशी “उत्तरकाशी” पहुंचते हैं। उत्तरकाशी में भगवान शिव का पौराणिक “विश्वनाथ मंदिर” है। जिसमें स्वयंभू शिवलिंग है। उत्तरकाशी एक धार्मिक नगरी है, जिसमें एक सौ से अधिक छोटे-बड़े मंदिर हैं। इसी के साथ केदारघाट, मणिकर्णिका घाट के अलावा वरुणा और अस्सी नदियों का भागीरथी में संगम होता है।
वरुणा + अस्सी = वाराणसी ,जो तीर्थ काशी में है; वही उत्तरकाशी में विद्यमान है। यहां नेहरू पर्वतारोहण संस्थान कुटेटी देवी मंदिर, कालेश्वर महादेव मन्दिर सहित गंगा का पावन तट, उजेली मे संतों के आश्रम से आगे बढ़ते हुए। गंगोरी नामक स्थान पड़ता है, गंगोरी से संगम चट्टी को जाते हैं। यहीं से डोडिताल को भी जाते हैं।
गंगोरी से मनेरी भाली परियोजना के बाद भटवाड़ी विकासखंड मुख्यालय से एक मार्ग रैथल वारसू होते हुए “दयारा बुग्याल” को जाता है। जो बहुत ही रमणीक मनोहरी पर्यटक स्थल है। भटवाड़ी से गंगनानी जहां गर्म जल के स्रोत हैं। यहां जब तीर्थ यात्री स्नान करते हैं, तो रास्ते की थकान भूल जाते हैं। आगे बढ़ते हुए सुक्की झाला होते हुए हर्षिल पहुंचते हैं। हर्षिल में एटकिंसन का बंगला, सेब के बाग, राजमा एवं हर्षिल का पोस्ट ऑफिस जिसे राम तेरी गंगा मैली में फिल्मांकन किया गया था। इस फिल्म को दर्शकों द्वारा बहुत सराहना मिली।
यही कुछ दूरी पर मुखवा गांव, मार्कंडेय आश्रम है। मुखवा में गंगोत्री के पुरोहितों का शीतकालीन आवास है। मां गंगा की भोग मूर्ति छ: माह तक मुखवा मन्दिर में ही पूजित होती है। हर्षिल से गंगा एवं देवदार के वृक्षों के मनोहारी दृश्यों को पर्यटक अपने कैमरों में कैद करते हुए भैरव घाटी, लंका पुल जिसका निर्माण 1985 में हुआ। पुल की ऊंचाई 410 फीट और लंबाई 300 फिट है, माना जाता है कि यह पुल एशिया का सबसे ऊंचा पुल है। यदि सबसे ऊंचा पुल नहीं भी हुआ तो सबसे उंचे पुलों में जरूर शामिल होगा।
यहीं से एक मार्ग नेलांग पिलांग घाटी से चीन सीमा तक जाता है। उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में स्थित गड़तांग गली, जो वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है, यह भी एक दर्शनीय स्थल है। लंका पुल पार करते हुए ‘गंगोत्री नेशनल पार्क’ से आगे बढ़ते हुए गंगोत्री पावन धाम पहुंचते हैं। गंगोत्री से 24 किमी आगे गोमुख गंगा का उदग्म स्थल है।
गंगोत्री का इतिहास
विष्णु भगवान ने जब वामन रूप धारण किया था। उस समय भगवान ने एक पद में पृथ्वी, दूसरे में स्वर्ग तथा तीसरे में राजा बलि ने सिर ही आगे कर दिया। इस समय जब वामन भगवान का पैर ब्रह्मा जी तक पहुंच गया। तब ब्रह्मा जी ने ससम्मान पैर का प्रक्षालन किया, पैर प्रक्षालन के जल को ब्रह्मा जी ने कमंडल में रखा। इसी पावन पवित्र जल के तीव्र वेग से “गंगा जी” का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी के कमंडल में संरक्षित और शिव जी की जटाओं में अनवरत एवं भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न एक जीवित नदी का नाम है – गंगा।
गंगा जल में बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु गंगाजल में मौजूद हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने देता है। यह जीवाणु गंदगी और बीमारी फैलाने वाले जीवाणु को नष्ट कर देते है। जिसके कारण गंगाजल सड़ता भी नहीं है और ना ही कीड़े पड़ते हैं। जबकि सामान्य जल दो-तीन दिन में खराब हो जाता है।
गंगा का महत्व
महर्षि कपिल मुनि के श्राप से राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गये थे। उनकी मुक्ति के लिए रघुवंश में कई लोगों ने तपस्या की लेकिन सफलता नहीं मिली। अंत में श्रीकंठ पर्वत पर भगीरथ ने कठोर तपस्या की। उनके कठोर तपस्या को देखते हुए भगवती गंगा ने पृथ्वी पर अवतरित होना स्वीकार कर लिया। परंतु उनके तीव्र वेग को पृथ्वी सहन करने में सक्षम नहीं थी।
तब भगवान शिव जी को प्रसन्न करने के लिए सतोपंथ नामक पर्वत पर तपस्या की। भगवान शिव गंगा के भार को संभालने के लिए तैयार हो गये। शिवजी ने गंगा को अपने जटाओं में उतार लिया। जहां गंगाजी शिवजी की जाटाओं में उलझ गयी और बाहर न निकल सकी। शिव जी ने अपनी जटा खोली, जिससे गंगा जी दस धाराओं में बहने लगी। जो नदी गंगोत्री से निकलकर भगीरथ के पीछे चली वह “भागीरथी” कहलायी। भागीरथी सहित सभी नदियों का संगम अलकनंदा और भागीरथी के साथ देव प्रयाग में होता है। इससे आगे ‘गंगा’ कहलाती है। स्नान करते समय अन्य नदियों को भी याद करने का विधान है। जिस के लिए मंत्र है:
” गंगेश्च यमुनेश्चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्वधे सिन्धु कावेरी जले स्मिन स्नेधोकर:।। “
जहां गंगाजी श्रद्धा विश्वास के रूप में पूजनीय बंदिनीय हो और पूजा वंदना करने वाले हों, वही हिंदू संस्कृति, संस्कार व सनातन धर्म है। जो हर वर्ष लाखों लोग चारों धाम की यात्रा कर यहां से प्रसाद के रुप मे यमुना जल: जिसमे आलू , चावल पकता है, गंगा जल जिसमें कई वर्षों तक कीड़े पैदा नहीं होते हैं। वहीं बाबा केदार का मक्खन (जो दर्दनाशक एवं हर बीमारी ठीक करता है), भगवान विष्णु की तुलसी जिसमे भगवान स्वयं वास करते हैं। ऐसा दिव्य प्रसाद श्रद्धालु साथ लेकर जाते हैं। इसी श्रद्धा विश्वास के साथ श्रद्धालु हर वर्ष यात्रा करने आते हैं।
भरण पोषण करने वाली मां गंगा
गंगा मां ने अपने उद्गम से लेकर गंगासागर तक अपने भक्तों को अविश्वसनीय, अकल्पनीय सबसे बड़ा रोजगार प्रदान किया है। गंगा के किनारे सेवा करने वाले लोगों को मां भूखा नहीं सुलाती है। जो भी व्यवसायी सेवा भाव से यात्रियों, दर्शनार्थियों की सेवा करते हैं , उन पर मां की विशेष कृपा बरसती है।
गंगोत्री मंदिर
यहां पर पूर्व में पूजा अर्चना हेतु छोटा सा मंदिर था। गोरखा आक्रमण के बाद अमर सिंह थापा द्वारा गंगा मंदिर का निर्माण करवाया गया। उस समय मंदिर की ऊंचाई 16 से 20 फीट थी। शिखर कत्यूरी शैली का चढ़ाया गया था। एटकिंसन ने भी अपनी बुक मे मंदिर का वर्णन किया है। मंदिर के समीप इस स्थान के रक्षक देवता का छोटा भैरव देवता का मंदिर है। कुछ समय बाद गंगा मंदिर का निर्माण जयपुर के राजाओं द्वारा किया गया। जो वर्तमान में भव्य व दिव्य रूप में विद्यमान है।
भगीरथ शिला
मंदिर से गंगा की ओर उतरते हुए एक विशाल शिला है, जो भगीरथ शिला कहलाती है। इसी शीला पर बैठकर भगीरथ ने मां गंगा को स्वर्ग से अवतरित करने के लिए तप किया था। जिस दिन गंगा स्वर्ग से उत्तरी उस दिन को ”गंगा दशहरे’ के रूप में मनाया जाता है।
मंदिर पूजन
गंगा मंदिर अक्षय तृतीया को खुलता है और दीपावली के पश्चात गोवर्धन के दिन अंतिम पूजन होकर मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं। इसके पश्चात गंगा मां की पूजा मार्कंडेय आश्रम मुखवा में की जाती है। यहां की पूजा वर्तमान पंडित सेमवाल जाति के ब्राह्मण करते हैं। गंगोत्री स्वयं में एक महान तीर्थ है। इसके चारों ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार अनेक तीर्थ हैं, जिनमें :
गौरीकुंड
मंदिर से लगभग 500 मीटर नीचे की ओर भागीरथी की धारा एक झरने के रूप में गिरती है। वहीं पर प्राकृतिक शिवलिंग है, मान्यता है कि शिव जी को प्राप्त करने के लिए यहीं पर पार्वती जी ने तपस्या की थी। यहीं पर बांयी ओर “सुंदरानंद बाबा” जी की आर्ट गैलरी एवं योग ध्यान केंद्र देखने योग्य है। जो गौरीकुंड के समीप है।
केदार संगम
गंगा मंदिर से कुछ ही कदम नीचे बांयी ओर से एक जलधारा आ कर गंगा जी में मिलती है। इस जलधारा को ‘केदार गंगा’ कहा जाता है। मान्यता है कि इसी धारा के साथ चलते हुए पांडव केदारनाथ तक पहुंचे थे।
गौमुख
गौमुख कालांतर में गंगोत्री के समीप था, जो बर्फ कम पढ़ने एवं ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आज 24 किलोमीटर तक पीछे हट चुका है। गौमुख की यात्रा साहसी एवं मनोरंजन युक्त है। पुराणों में वर्णानुसार शिव जी ने जब गंगा को जटाओं में धारण किया था, तो इसी मुद्रा में बैठे थे।
गंगोत्री में तीर्थ यात्रियों हेतु सुविधाऐं
यहां धर्मशालाऐं, विश्रामगृह, आश्रमों में यात्रियों को रात्रि विश्राम के लिए स्थान मिल जाता है। काली कमली धर्मशाला, पंजाब सिंध क्षेत्र, पंडों की धर्मशाला, मौनी आश्रम, जाह्नवी लॉज, गढ़वाल विकास निगम, लोक निर्माण विभाग विश्रामगृह, वन विभाग विश्रामगृह, साधु संतों, पंडों के आश्रम व विश्राम गृह मौजूद हैं।
यहां कैसे पहुंचे?
गंगोत्री हरिद्वार से 289 किलोमीटर दूर है। यहां का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा जौलीग्रांट में है। ऋषिकेश – जौलीग्रांट 21 किलोमीटर और हरिद्वार से 27 किलोमीटर दूर है।
रेल सेवा हरिद्वार एवं ऋषिकेश तक है। ऋषिकेश से नरेंद्र नगर जहां टेहरी रियासत की राजधानी थी। आज भी राजमहल देखने योग्य है। नरेंद्र नगर से अगराखाल जहां स्थानीय उत्पाद बहुतायत में मिल जाते हैं। यहीं से ‘कुंजापुरी मंदिर’ के लिए भी मार्ग जाता है।आगे बढ़ते हुए चंबा जो एक खूबसूरत पहाड़ी शहर है। यहां से ही टिहरी झील के लिए भी मार्ग जाता है। जहां पर नौका विहार का आनंद ले सकते हैं।
गंगोत्री से साथ क्या लेकर जाऐं?
यहां से गंगाजल लेकर जाऐं ,ऊन के वस्त्र, हर्षिल की राजमा व सेब, रिंगाल की टोकरी आदि यहां से साथ ले जा सकते हैं।
गंगोत्री में क्या ना करें?
यह एक धार्मिक आस्था व विश्वास की यात्रा है। इसलिए यहां पर विचारों से, कर्मों से शुद्ध होकर रहें। प्लास्टिक की बोतल और रैपर को फेंकने के बजाय, उन्हें अपने साथ ले कर जाएँ। यात्रा में कूड़ा फैलाकर पर्यावरण को दूषित न करें। शाकाहारी भोजन व पेय पदार्थ का ही सेवन करें |
मैं आशा करता हूं आप मां गंगा के दर्शनार्थ आएंगे और मां गंगा आपकी मनोकामना पूर्ण करते हुए आपके पितरों को मुक्ति प्रदान करने के साथ अपनी कृपा आप सब पर बना के रखेंगी |
जय मां गंगे।